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छत्तीसगढ़

दिल्ली में कर्तव्य पथ पर दिखेगा ‘मुरिया दरबार’:600 साल पुरानी आदिवासी संसद की होगी झलक; 17वीं बार गणतंत्र दिवस परेड का हिस्सा बनेगा छत्तीसगढ़

दिल्ली में कर्तव्य पथ पर इस बार बस्तर की 600 साल पुरानी आदिवासी संसद ‘मुरिया दरबार’ दिखाई देगी। गणतंत्र दिवस पर निकलने वाली झांकी में इसे भी शामिल किया गया है। राज्य गठन के बाद यह 17वीं बार होगा, जब प्रदेश की झांकी देश के सामने होगी।

अब तक छत्तीसगढ़ की झांकी ने 4 बार अपना स्थान बनाया है। इस बार चयनित थीम की तारीफ दिल्ली तक हुई है। देश के 28 राज्यों के बीच कड़ी प्रतियोगिता के बाद ‘बस्तर की आदिम जन संसद: मुरिया दरबार’ का चयन किया गया है। परेड में 16 झांकियां दिखाई

जानिए क्या है ‘मुरिया दरबार’

छत्तीसगढ़ की झांकी भारत सरकार की थीम ‘भारत लोकतंत्र की जननी’ पर आधारित है। यह झांकी आदिवासी परंपरा में आदिम जन-संसद को बताती है। इसमें मुरिया दरबार और उसके उद्गम लिमऊ राजा को झांकी में दर्शाया गया है। मुरिया दरबार विश्व-प्रसिद्ध बस्तर दशहरा की एक परंपरा है।

नींबू को राजा मानकर लिया जाता था फैसला

इस परंपरा की शुरुआती तथ्य कोंडागांव जिले के बड़े-डोंगर के लिमऊ-राजा में मिलते हैं। लोककथा के अनुसार आदिम-काल में जब कोई राजा नहीं था, तब आदिम-समाज एक नींबू को राजा का प्रतीक मानकर आपस में ही निर्णय ले लिया करता था।

कोंडागांव के बड़े डोंगर को बस्तर राज्य की पहली राजधानी माना जाता है। यहां के पुरावशेष, जनश्रुतियों और किवदंतियों के जरिए से यहां के प्राचीन इतिहास के संबंध में कई जानकारियां मिलती हैं। पहला मत घनश्याम सिंह नाग की पुस्तक ‘बस्तर की प्राचीन राजधानी बड़े डोंगर‘ में मिलता है।

उत्तराधिकारी नहीं था, तो नींबू को बिठाया गद्दी पर

इसके अनुसार बड़े डोंगर के दक्षिण में स्थित गादीराव डोंगरी पहाड़ी है, जिसे जनजातीय लोगों के बीच आस्था और श्रद्धा के रूप में पूजा जाता था। बड़े डोंगर में निरवंशीय राजा का कोई वैध उत्तराधिकारी नहीं होने पर जनता ने गद्दी पर नींबू को रखकर उत्तराधिकारी मान लिया।

बड़े डोंगर से तब से लिमऊ राजा का प्रतीकात्मक राज ही चलता रहा। गादीराव डोंगरी से कुछ दूर एक बड़ी चट्टान है, जिसके छोर पर राजगद्दी की आकृति का पत्थर है। जब किसी विषय पर निर्णय लेना होता तो ग्रामीण यहां एकत्रित होकर नींबू की स्थापना कर धूप दीप से पूजा कर चर्चा करते थे।

फैसला होने पर नींबू को चार भागों में काटा जाता और उसे चारों दिशाओं में विसर्जित किया जाता था। यह परम्परा आज भी जीवित है। आज भी यहां के ग्रामीण विभिन्न मुद्दों पर अपने आपसी फैसलों के लिए यहां आकर लिमऊ राजा के सामने चर्चा करते हैं।

Anil Sahu

मुख्य संपादक

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